शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

वा उतरी........

वा उतरी........
 सजग हुयो
म्हारो मन
औचक सूं

निजर गी घूम
देख्यो द्वार
 कोइ नी हो
पण लाग्यो  कोई हो
मैं उणरी निजरां मे ही
पण म्हारी टकटकी अळगां ताई जा र
रीती इ पाछी आई!

मन उण घड़ी सूं
गुन्जण लाग्यो
रीती जग्यां
खनखन खनकी
ज्याणे कोई पांवणो
थोड़ी ताळ सारु आयो
अर  ठुनक र मानस में बैठ ग्यो
टमटोळती आखर जैड़ी आख्ंया
लकदक मनचीता  भावां सूं

 वा उतरी म्हारे कागदे
थरप ग्यो एक चितराम
अर मन गावा लाग्यो
 कविता !!!

किरण राजपुरोहित नितिला

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें