वा उतरी........
सजग हुयो
म्हारो मन
औचक सूं
निजर गी घूम
देख्यो द्वार
कोइ नी हो
पण लाग्यो कोई हो
मैं उणरी निजरां मे ही
पण म्हारी टकटकी अळगां ताई जा र
रीती इ पाछी आई!
मन उण घड़ी सूं
गुन्जण लाग्यो
रीती जग्यां
खनखन खनकी
ज्याणे कोई पांवणो
थोड़ी ताळ सारु आयो
अर ठुनक र मानस में बैठ ग्यो
टमटोळती आखर जैड़ी आख्ंया
लकदक मनचीता भावां सूं
वा उतरी म्हारे कागदे
थरप ग्यो एक चितराम
अर मन गावा लाग्यो
कविता !!!
किरण राजपुरोहित नितिला
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